Sunday, June 16, 2024
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Ujjain Pramukh Darshaniy Sthal-2022 धार्मिक नगरी उज्जैन के प्रमुख दर्शनीय स्थान एवं विशेषताएं

Ujjain Pramukh Darshaniy Sthal-2022 मध्यप्रदेश के उज्जैन शहर अनेक प्राचीन मंदिर है, धार्मिक नगरी उज्जैन के प्रमुख दर्शनीय स्थान एवं विशेषताएं बताएगें

Ujjain Pramukh Darshaniy Sthal-2022 भारत के हृदय में बसे मध्यप्रदेश के उज्जैन शहर में प्रत्येक 12 वर्ष में सिंहस्थ महाकुंभ का मेला लगता है। उज्जैन में कई पुराने से पुराने मंदिर स्थित है। शिप्रा नदी के पूर्वी तट पर बसी यह जगह चार धामों के जैसी मोक्ष यात्रा से परिचित कराती है। शायद आप भूले ना हो कि यह हर बारह वर्ष बाद कुंभ का मेला लगता है। हर कुंभ मेले के दौरान यहाँ लाखों की तादाद में यात्रियों का सैलाब उमड़ता है। हिंदुओं का यह मुख्य तीरथ स्थल श्रद्धालुओं को भक्ति -भाव में लीन कर देता है। उज्जैन के दर्शनीय स्थल आपके मन को ऐसी शांति प्रदान करेंगे की आप कुछ वक्त के लिए अपने दुख से छुटकारा पा जाऐंगे। ऐसी पूजा-पाठ जो आपको साक्षात भगवान के चरणों के करीब ले जाएगी। अपने धार्मिक, वास्तुकला व शैक्षिक मूल्यों से यात्रियों को आकर्षित करता है।

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महाकालेश्वर मंदिर एवं त्रिवेणी संगम पर शनि मंदिर (Ujjain Pramukh Darshaniy Sthal-2022)

Ujjain Pramukh Darshaniy Sthal-2022 उज्जयिनी के श्री महाकालेश्वर भारत में बारह प्रसिद्ध ज्योतिर्लिंगों में से एक हैं। महाकालेश्वर मंदिर की महिमा का विभिन्न पुराणों में विशद वर्णन किया गया है। कालिदास से शुरू करते हुए, कई संस्कृत कवियों ने इस मंदिर को भावनात्मक रूप से समृद्ध किया है। उज्जैन भारतीय समय की गणना के लिए केंद्रीय बिंदु हुआ करता था और महाकाल को उज्जैन का विशिष्ट पीठासीन देवता माना जाता था। समय के देवता, शिव अपने सभी वैभव में, उज्जैन में शाश्वत शासन करते हैं। महाकालेश्वर का मंदिर, इसका शिखर आसमान में चढ़ता है, आकाश के खिलाफ एक भव्य अग्रभाग, अपनी भव्यता के साथ आदिकालीन विस्मय और श्रद्धा को उजागर करता है। महाकाल शहर और उसके लोगों के जीवन पर हावी है, यहां तक कि आधुनिक व्यस्तताओं के व्यस्त दिनचर्या के बीच भी, और पिछली परंपराओं के साथ एक अटूट लिंक प्रदान करता है। भारत के 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक, महाकाल में लिंगम (स्वयं से पैदा हुआ), स्वयं के भीतर से शक्ति (शक्ति) को प्राप्त करने के लिए माना जाता है, अन्य छवियों और लिंगों के खिलाफ, जो औपचारिक रूप से स्थापित हैं और मंत्र के साथ निवेश किए जाते हैं- शक्ति। महाकालेश्वर की मूर्ति दक्षिणमुखी होने के कारण दक्षिणामूर्ति मानी जाती है। यह एक अनूठी विशेषता है, जिसे तांत्रिक परंपरा द्वारा केवल 12 ज्योतिर्लिंगों में से महाकालेश्वर में पाया जाता है। महाकाल मंदिर के ऊपर गर्भगृह में ओंकारेश्वर शिव की मूर्ति प्रतिष्ठित है। गर्भगृह के पश्चिम, उत्तर और पूर्व में गणेश, पार्वती और कार्तिकेय के चित्र स्थापित हैं। दक्षिण में नंदी की प्रतिमा है। तीसरी मंजिल पर नागचंद्रेश्वर की मूर्ति केवल नागपंचमी के दिन दर्शन के लिए खुली होती है। महाशिवरात्रि के दिन, मंदिर के पास एक विशाल मेला लगता है, और रात में पूजा होती है।

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नवग्रह मंदिर (त्रिवेणी संगम)

शिप्रा के त्रिवेणी घाट पर स्थित, मंदिर उज्जैनी शहर के पुराने स्थल से दूर स्थित है। यह नौ ग्रहों को समर्पित है, जिस मंदिर के बारे में हम बात कर रहे हैं वह मध्य प्रदेश के उज्जैन में है। इस मंदिर को शनि मंदिर के नाम से जाना जाता है। इसे नवग्रह मंदिर के नाम से जाना जाता है। यह मंदिर शिप्रा नदी के तट पर है। बताया जाता है कि लगभग दो हजार साल पहले इस मंदिर की स्थापना राजा विक्रमादित्य ने की थी। कहा जाता है कि विक्रमादित्य ने इस मंदिर के बनाने के बाद ही विक्रम संवत की शुरुआत की थी। यहां पर मुख्य शनिदेव की प्रतिमा के साथ-साथ ढय्या शनि की भी प्रतिमा भी स्थापित है। बताया जाता है कि विक्रम संवत का इतिहास भी इस मंदिर से जुड़ा हुआ है। यही नहीं, यह शनि मंदिर पहला मंदिर भी है, जहां शनिदेव शिव के रूप विराजमान है। यहां आने वाले श्रद्धालु अपनी मनोकामना के लिए शनिदेव पर तेल चढ़ाते हैं। कहा जाता है कि यहां साढ़ेसाती और ढय्या की शांति के लिए शनिदेव पर तेल चढ़ाया जाता है।

बताया जाता है कि शनि अमावस्या के दिन यहां 5 क्विंटल से अभी तेल शनिदेव पर चढ़ता है। मंदिर प्रशासन को इसके लिए कई टंकी की व्यवस्था करना पड़ता है। बाद में इस तेल को निलाम किया जाता है। माना जाता है कि शनि अमावस्या दे दिन श्रद्धालु शिव रूप में शनिदेव को तेल चढ़ाकर प्रसन्न करते हैं। कहा जाता है कि जो भी यहां सच्चे मन से शनिदेव को प्रसन्न करता है उसे शनिदेव कभी दुख नहीं देते हैं, सारे कष्ट दूर कर देते हैं।

Ujjain Pramukh Darshaniy Sthal-2022

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द्वारकाधीश गोपाल मंदिर एवं काल भैरव मंदिर (Ujjain Pramukh Darshaniy Sthal-2022)

Ujjain Pramukh Darshaniy Sthal-2022 द्वारकाधीश गोपाल मंदिर उज्जैन, मध्य प्रदेश में स्थित है। यह प्रसिद्ध मंदिर नगर का दूसरा सबसे बड़ा मंदिर है। मंदिर का निर्माण दौलतराव सिंधिया की पत्नी वायजा बाई द्वारा करवाया गया था। ‘द्वारकाधीश गोपाल मंदिर’ लगभग दो सौ वर्ष पुराना बताया जाता है। पर्वों के अवसर पर यहाँ आने वाले श्रद्धालुओं को संस्था की ओर से कई प्रकार की सुविधाएँ प्रदान की जाती हैं। मंदिर के चाँदी के द्वार आकर्षण का मुख्य केन्द्र हैं।

निर्माण काल

‘उज्जैन’ मध्य प्रदेश के मुख्य धार्मिक नगरों में से एक है। यहाँ का प्रसिद्ध ‘द्वारकाधीश गोपाल मंदिर’ नगर का दूसरा सबसे बड़ा मंदिर है। शहर के मध्य व्यस्ततम क्षेत्र में स्थित इस मंदिर की भव्यता आस-पास बेतरतीब तरीके से बने मकान और दुकानों के कारण दब-सी गई है। कहा जाता है कि इस मंदिर का निर्माण दौलतराव सिंधिया की धर्मपत्नी वायजा बाई ने संवत 1901 में कराया था, जिसमें मूर्ति की स्थापना संवत 1909 में की गई थी। इस मान से ईस्वी सन 1844 में मंदिर का निर्माण और 1852 में मूर्ति की स्थापना हुई।

स्थापत्य

मंदिर के गर्भगृह में लगा रत्न जड़ित द्वार दौलतराव सिंधिया ने ग़ज़नी से प्राप्त किया था, जो सोमनाथ की लूट में वहाँ पहुँच गया था। मंदिर का शिखर सफ़ेद संगमरमर तथा शेष मंदिर सुन्दर काले पत्थरों से निर्मित है। मंदिर का प्रांगण और परिक्रमा पथ भव्य और विशाल है। ‘जन्माष्टमी’ यहाँ का विशेष पर्व है। ‘बैकुंठ चौदस’ के दिन महाकाल की सवारी हरिहर मिलन हेतु मध्य रात्रि में यहाँ आती है तथा भस्म आरती के समय गोपाल कृष्ण की सवारी महाकालेश्वर जाती है और वहाँ तुलसी का दल अर्पित किया जाता है। मंदिर के चाँदी के द्वार यहाँ का एक अन्य आकर्षण हैं। मंदिर में दाखिल होते ही गहन शांति का अहससास होता है। इसके विशाल स्तंभ और सुंदर नक्काशी देखते ही बनती है। मंदिर के आस-पास विशाल प्रांगण में सिंहस्थ या अन्य पर्व के दौरान बाहर से आने वाले लोग विश्राम करते हैं। पर्वों के दौरान ट्रस्ट की तरफ़ से श्रद्धालुओं तथा तीर्थ यात्रियों के लिए कई तरह की सुविधाएँ प्रदान की जाती है।

देवी-देवता

‘द्वारकाधीश गोपाल मंदिर’ में भगवान द्वारकाधीश, शंकर, पार्वती और गरुड़ भगवान की मूर्तियाँ हैं। ये मूर्तियाँ अचल है और एक कोने में वायजा बाई की भी ‍मूर्ति है। यहाँ ‘जन्माष्टमी’ के अलावा ‘हरिहर का पर्व’ बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। हरिहर के समय भगवान महाकाल की सवारी रात बारह बजे आती है, तब यहाँ हरिहर मिलन अर्थात् विष्णु और शिव का मिलन होता है। जहाँ पर उस वक्त डेढ़ दो घंटे पूजन चलता है।

काल भैरव मंदिर

मदिरापान करती काल भैरव की प्रतिमा- क्या मूर्ति मदिरापान कर सकती…आप कहेंगे नहीं, कतई नहीं। भला मूर्ति कैसे मदिरापान कर सकती है। मूर्ति तो बेजान होती है। बेजान चीजों को भूख-प्यास का अहसास नहीं होता, इसलिए वह कुछ खाती-पीती भी नहीं है। लेकिन उज्जैन के काल भैरव के मंदिर में ऐसा नहीं होता। वाम मार्गी संप्रदाय के इस मंदिर में काल भैरव की मूर्ति को न सिर्फ मदिरा चढ़ाई जाती है, बल्कि बाबा भी मदिरापान करते हैं। आस्था और अंधविश्वास की इस कड़ी में हमने इसी तथ्य को खंगालने की कोशिश की। अपनी इस कोशिश के लिए हमने सबसे पहले रुख किया उज्जैन का…महाकाल के इस नगर को मंदिरों का नगर कहा जाता है। लेकिन हमारी मंजिल थी, एक विशेष मंदिर- काल भैरव मंदिर। यह मंदिर महाकाल से लगभग पांच किलोमीटर की दूरी पर है। कुछ ही समय बाद हम मंदिर के मुख्य द्वार पर थे।
मंदिर के बाहर सजी दुकानों पर हमें फूल, प्रसाद, श्रीफल के साथ-साथ वाइन की छोटी-छोटी बोतलें भी सजी नजर आईं। इससे पहले कि हम कुछ समझ पाते, जान पाते, उससे पहले ही हमारे सामने कुछ श्रद्धालुओं ने प्रसाद के साथ-साथ मदिरा की बोतलें भी खरीदीं। जब हमने दुकानदार रवि वर्मा से इस बारे में बातचीत की तो उन्होंने बताया कि बाबा के दर पर आने वाला हर भक्त उनको मदिरा (देशी मदिरा) जरूर चढ़ाता है। बाबा के मुंह से मदिरा का कटोरा लगाने के बाद मदिरा धीरे-धीरे गायब हो जाती है।
Ujjain Pramukh Darshaniy Sthal-2022

चौबीस खंबा माता मंदिर एवं राम जनार्दन मंदिर Ujjain Pramukh Darshaniy Sthal-2022

Ujjain Pramukh Darshaniy Sthal-2022 यह है उज्जैन नगर में प्रवेश करने का प्राचीन द्वार। पहले इसके आसपास परकोटा या नगर दीवाल हुआ करती थी। अब वे सभी लुप्त हो गई हैं, सिर्फ प्रवेश द्वार और उसका मंदिर ही बचा है। अमृतलाल पुजारी ने कहा कि यहां पर दो देवियां विराजमान हैं- एक महामाया और महानाया। इसके अलावा विराजमान हैं बत्तीस पु‍तलियां। यहां पर रोज एक राजा बनता था और उससे ये प्रश्न पूछती थीं। राजा इतना घबरा जाता था कि डर के मारे मर जाता था।

जब राजा विक्रमादित्य का नंबर आया तो उन्होंने अष्टमी के दिन नगर पूजा चढ़ाई। नगर पूजा में राजा को वरदान मिला था कि बत्तीस पुतली जब तुमसे जवाब मांगेंगी तो तुम उन्हें जवाब दे पाओगे। जब राजा ने सभी पुतलियों को जवाब दे दिया तो पुतलियों ने भी वरदान दिया कि राजा जब भी तू न्याय करेगा तब तेरा न्याय डिगने नहीं दिया जाएगा। श्रीकृष्ण जोशी ने बताया कि इंद्र के नाती गंधर्व सेन गंधर्वपुरी से आए थे, जो विक्रमादित्य के पिता थे। अवंतिका नगरी के प्राचीन द्वार पर विराजमान हैं दो देवियां जिन्हें नगर की सुरक्षा करने वाली देवियां कहा जाता है। इस प्राचीन मंदिर में सिंहासनारूढ राजा विक्रमादित्य की मूर्ति के अलावा बत्तीस पुतलियों की मूर्तियां भी विराजमान हैं। ये सब परियां हैं जो आकाश-पाताल की खबर लाकर देती हैं।

राम जनार्दन मंदिर

राम-मंदिर में भगवन राम , लक्ष्मण और सीता और जनार्दन-मंदिर में जनार्दन-विष्णु की रचना सत्रहवीं शताब्दी की है। दोनों मंदिर अपनी संरचनात्मक कला की दृष्टि से आकर्षक रूप प्रस्तुत करते हैं। इन मंदिरों का निर्माण राजा जयसिंह ने सत्रहवीं शताब्दी में करवाया था। अठारहवीं शताब्दी में मराठा काल में बाद में चारदीवारी और टैंक को जोड़ा गया था। दोनों मंदिरों की दीवारों पर मराठा चित्रों के सुंदर उदाहरण देखने को मिलते हैं। जनार्दन मंदिर के सामने दोनों मंदिरों के साथ-साथ तालाब के पास कुछ पुराने चित्र स्थापित देखे गए हैं जो मूर्तिकला की दृष्टि से भी बहुत महत्वपूर्ण हैं। तालाब के पास गोवर्धनधारी कृष्ण की छवि ग्यारहवीं शताब्दी की है। असेम्बली हॉल और राम-मंदिर के इंटीरियर के बीच स्थापित विष्णु की छवियां दसवीं शताब्दी की हैं और ब्रह्मा, विष्णु और महेश की छवियां बारहवीं शताब्दी ईस्वी की हैं।

Ujjain Pramukh Darshaniy Sthal-2022

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मंगलनाथ मंदिर एवं अंगारेश्वर महादेव मंदिर Ujjain Pramukh Darshaniy Sthal-2022

Ujjain Pramukh Darshaniy Sthal-2022 भगवान मंगलनाथ मंदिर में की गई मंगल की पूजा का जो महत्व है वो कहीं और नहीं है। मान्यता है कि यहां पूजा अर्चना करने वाले हर जातक की कुंडली के दोषों का नाश हो जाता है। ऐसे व्यक्ति जिनकी कुंडली में मंगल भारी रहता है, वो अपने अनिष्ट ग्रहों की शांति के लिए मंगलनाथ मंदिर में पूजा-पाठ करवाने आते हैं। मंगलनाथ मंदिर में पूजा-अर्चना करने से कुंडली में उग्ररूप धारण किया हुआ मंगल शांत हो जाता है। इसी धारणा के चलते हर साल हजारों नवविवाहित जोड़े, जिनकी कुंडली में मंगलदोष होता है, यहां पूजा-पाठ करवाने आते हैं। कहा जाता है कि अंधकासुर नामक दैत्य को शिवजी ने वरदान दिया था कि उसके रक्त से सैकड़ों दैत्य जन्म लेंगे। वरदान के बाद इस दैत्य ने अवंतिका में तबाही मचा दी। तब दीन-दुखियों ने शिवजी से प्रार्थना की भक्तों के संकट दूर करने के लिए स्वयं शंभु ने अंधकासुर से युद्ध किया। दोनों के बीच भीषण युद्ध हुआ. शिवजी का पसीना बहने लगा। रुद्र के पसीने की बूंद की गर्मी से उज्जैन की धरती फटकर दो भागों में विभक्त हो गई। और मंगल ग्रह का जन्म हुआ। शिवजी ने दैत्य का संहार किया और उसकी रक्त की बूंदों को नवउत्पन्न मंगल ग्रह ने अपने अंदर समा लिया। कहते हैं इसलिए ही मंगल की धरती लाल रंग की है।

कहा जाता है कि ये मंदिर सदियों पुराना है। सिंधिया राजघराने ने इसका पुनर्निर्माण करवाया था। यहां की गई मंगल की पूजा का विशेष महत्व है। भक्तों द्वारा यहां मंगलनाथ को शिव रुप में ही पूजा जाता है। मंगलवार के दिन यहां श्रद्धालु दूर-दूर से चले आते रहे हैं। यहां होने वाली भात पूजा को भी काफी महत्वपूर्ण माना जाता है। मान्यता है कि इस मंदिर में भात पूजा करवाने से कुंडली के मंगल की शांति होती है और मांगलिक दोष से ग्रस्त व्यक्ति के सारे काम निर्विघ्न पूरे होते हैं।

अंगारेश्वर महादेव मंदिर

उज्जैन का अंगारेश्वर मंदिर भक्तों के बीच काफी लोकप्रिय है। दुनिया में ये एकमात्र ऐसा मंदिर है जहां दर्शन करने से मंगल के दोष का निवारण हो जाता है। दीपावली पर्व के बाद आने वाले मंगलवार पर अंगारेश्वर मंदिर में अन्नकूट का आयोजन किया जाता है। दर्शन करने मात्र से मंगल दोष होते हैं दूर उज्जैन के 84 महादेव में शामिल अंगारेश्वर महादेव मंदिर का स्कंद पुराण के अवंतिका खंड में उल्लेख है। पंडित मनीष उपाध्याय के मुताबिक इसका धार्मिक महत्व है‌। मान्यता है कि यहां दर्शन करने मात्र से मंगल दोष दूर होते हैं। इसके अलावा मंगलवार को पूजन करने पर कार्य में रुकवट खत्म होती है। अंगारेश्वर मंदिर की विशेषता है कि दीपावली के बाद आने वाले मंगलवार को विशेष रुप से अन्नकूट लगता है। मंदिर के पुजारी रोहित के मुताबिक दूर-दूर से श्रद्धालु मंगलवार को दर्शन करने के लिए आते हैं और मंगल के दोषों से मुक्ति पाते हैं।

श्री अंगारेश्वर महादेव (उज्जैन) ही भूमि पुत्र मंगल हैं अवंतिका कि प्राचीन 84 महादेवों में स्थित 43वे महादेव श्री अंगारेश्वर महादेव जो कि सिद्ध्वट (वट्व्रक्ष) के सामने शिप्रा के उस पर स्थित हैं, जिन्हें मंगल देव (गृह) भी कहा जाता हैं। माना जाता है कि जो व्यक्ति प्रतिदिन इस महालिंग श्री अंगारेश्वर का दर्शन करेगा उनका फिर जन्म नही होगा। जो इस लिंग का पूजन मंगलवार को करेगा वह इस युग में कृतार्थ हो जाएगा, इसमे कोइ संशय नही हैं। जो मंगलवार कि चतुर्थी के दिन अंगारेश्वर का दर्शन-व्रत-पूजन करेंगे वह संतान, धन, भूमि, सम्पत्ति, यश को प्राप्त करेगा। मना जाता है कि इनके दर्शन-पूजन से वास्तुदोष, भुमिदोष का भी निवारण होता हैं। न्यायालय में विजय प्राप्त होती हैं। इस लिंग पर भात पूजन करने से मंगल दोष, भूमि दोष का भी निवारण होता।

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इस्कान मंदिर एवं वेधशाला Ujjain Pramukh Darshaniy Sthal-2022

Ujjain Pramukh Darshaniy Sthal-2022 इस्कॉन (द इंटरनेशनल सोसाइटी ऑफ कृष्णा कॉन्शसनेस) मंदिर, उज्जैन भगवान कृष्ण का एक लोकप्रिय मंदिर है।उज्जैन भारत के प्रमुख हिंदू तीर्थस्थलों में से एक है। इस्कॉन मंदिर जो मध्य प्रदेश के उज्जैन ज़िले में नानाखेड़ा बस स्टैंड के पास स्थित है।उज्जैन का धार्मिक महत्व यह भी है कि यहाँ भगवान श्री कृष्ण और उनके भाई बलराम ने गुरु संदीपनी आश्रम में अध्ययन किया था। अधिक जानकारी के लिए कृपया वेबसाइट https://iskconujjain.com/ पर संपर्क करें।

वेधशाला

उज्जैन ने खगोल विज्ञान के क्षेत्र में काफी महत्व का स्थान प्राप्त किया है, सूर्य सिद्धान्त और पंच सिद्धान्त जैसे महान कार्य उज्जैन में लिखे गए हैं। भारतीय खगोलविदों के अनुसार, कर्क रेखा को उज्जैन से गुजरना चाहिए, यह हिंदू भूगोलवेत्ताओं के देशांतर का पहला मध्याह्न काल भी है। लगभग चौथी शताब्दी ई.पू. उज्जैन ने भारत के ग्रीनविच होने की प्रतिष्ठा का आनंद लिया। वेधशाला का निर्माण जयपुर के महाराजा सवाई राजा जयसिंह ने 1719 में किया था जब वे दिल्ली के राजा मुहम्मद शाह के शासनकाल में मालवा के राज्यपाल के रूप में उज्जैन में थे। एक बहादुर सेनानी और एक राजनीतिज्ञ होने के अलावा, राजा जयसिंह असाधारण रूप से एक विद्वान थे। उन्होंने उस समय फारसी और अरबी भाषाओं में उपलब्ध एस्टर-गणित पर पुस्तकों का अध्ययन किया। उन्होंने खुद खगोल विज्ञान पर किताबें लिखीं। मिरज़ा उदैग बेग, तैमूरलंग के पोते और खगोल विज्ञान के विशेषज्ञ समरकंद में एक वेधशाला का निर्माण किया। राजा जयसिंह ने राजा मुहम्मद शाह की अनुमति से भारत में उज्जैन, जयपुर, दिल्ली, मथुरा और वाराणसी में वेधशालाओं का निर्माण किया। राजा जयसिंह ने अपने कौशल को नियोजित करने वाली इन वेधशालाओं में नए यंत्र स्थापित किए। उन्होंने उज्जैन में आठ वर्षों तक स्वयं ग्रहों की गतिविधियों का अवलोकन करके कई मुख्य खगोल-गणितीय उपकरणों में परिवर्तन किया। तत्पश्चात वेधशाला दो दशकों तक बिना रुके चलती रही। फिर सिद्धान्तवागीश (स्वर्गीय) श्री नारायणजी व्यास, गणक चूरामणि और (स्वर्गीय) श्री जी.एस. आप्टे के अनुसार, वेधशाला के प्रथम अधीक्षक, (स्वर्गीय) महाराज माधव राव सिंधिया ने वेधशाला का जीर्णोद्धार किया और इसे सक्रिय उपयोग के लिए वित्त पोषित किया। तब से यह लगातार कार्य कर रहा है। चार साधन अर्थात। वेधशाला में राजा जयसिंह द्वारा सन-डायल, नारीवलय, दिगंश और पारगमन यंत्र बनाए जाते हैं। शंकु (ज्ञानोमन) यंत्र को (स्वर्गीय) श्री जी.एस.एप्टे के निर्देशन में तैयार किया गया है। अपनी स्थिति के अंतिम क्षणों में आने के बाद, 1974 में दिगंश यंत्र का निर्माण किया गया और 1982 में शंकु यंत्र फिर से बनाया गया। साधनों के बारे में जानकारी प्रदर्शित करने वाले संगमरमर के नोटिस बोर्ड तैयार किए गए, जो 1983 में हिंदी और अंग्रेजी दोनों में थे। उज्जैन संभाग उज्जैन की तत्कालीन कमिश्नर स्वर्णमाला रावला ने 2003 में वेधशाला को पूर्ण रूप से पुनर्निर्मित और सुशोभित करने के लिए बहुत कष्ट दिया। इसके अलावा, ऊर्जा विकास निगम और सुंदर बैंकों के सहयोग से दस सौर ऊर्जा संचालित सौर ट्यूब-लाइटें स्थापित की गईं। मप्र के तत्वावधान में वेधशाला स्थल पर शिप्रा नदी लागहु उद्योग निगम। आगंतुकों को देखने के लिए 8 इंच व्यास वाले एक स्वचालित टेलिस्कोप को इसके माध्यम से ग्रहों को सिंहस्थ 2004 में स्थापित किया गया है।

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माता हरसिध्दि मंदिर एवं सांदीपनि आश्रम Ujjain Pramukh Darshaniy Sthal-2022

Ujjain Pramukh Darshaniy Sthal-2022 माता के 51 शक्तिपीठों में से एक ऐसा चमत्कारी शक्तिपीठ है जहां की मान्यता है की यहां स्तंभ पर दीया लगाने से हर मन्नत पूरी होती है। इस मंदिर में दीप स्तंभों की स्थापना राजा विक्रमादित्य ने करवाई थी। यदि अनुमान लगया जाए तो दीप स्तंभ 2 हजार साल से अधिक पुराने हैं। क्योंकि राजा विक्रमादित्य का इतिहास भी करीब 2 हजार साल पुराना है। इस स्थान पर देवी सती की कोहनी गिरी थी, जिसके बाद यहां शक्तिपीठ स्थापित हो गया। मंदिर में लोगों की आकर्षण का केंद्र यहां प्रांगण में मौजूद 2 दीप स्तंभ हैं। यह स्तंभ लगभग 51 फीट ऊंचे हैं, दोनों दीप स्तंभों में मिलाकर लगभग 1 हजार 11 दीपक हैं। कहा जाता है की इस स्तंभों पर दीप जलाना बहुत ही कठीन है। यह अद्भुत शक्तिपीठ मध्य प्रदेश के उज्जैन जिले में हरसिद्धि मंदिर के नाम से प्रसिद्ध है। वैसे तो हर समय ही यहां भक्तों की भीड़ रहती है। लेकिन नवरात्रि के समय और खासकर यहां आश्विन नवरात्रि के अवसर पर अनेक धार्मिक आयोजन होते हैं। रात्रि को आरती में एक उल्लासमय वातावरण होता है। इसलिए नवरात्रि के पर्व पर यहां खासा उत्साह देखने को मिलता है। मंदिर महाकाल मंदिर से कुछ ही दुरी पर स्थित हैं। रात के समय हरसिद्धि मंदिर के कपट बंद होने के बाद गर्भगृह में विशेष पर्वों के अवसर पर विशष पूजा की जाती है। श्रीसूक्त और वेदोक्त मंत्रों के साथ होने वाली इस पूजा का तांत्रिक महत्व बहुत ज्यादा है। भक्तों की मनोकामनाओं को पूरा करने के लिए यहां विशेष तिथियों पर भी पूजन करवाया जाता है।

सांदीपनि आश्रम 

प्राचीन उज्जैन अपने राजनीतिक और धार्मिक महत्व के अलावा, महाभारत काल की शुरुआत में शिक्षा का प्रतिष्ठित केंद्र था | भगवान श्री कृष्ण और सुदामा ने गुरु सांदीपनि के आश्रम में नियमित रूप से शिक्षा प्राप्त की थी। महर्षि सांदीपनि का आश्रम मंगलनाथ रोड पर स्थित है।
आश्रम के पास के क्षेत्र को अंकपात के नाम से जाना जाता है, माना जाता है कि यह स्थान भगवान कृष्ण द्वारा अपनी लेखनी को धोने के लिए इस्तेमाल किया गया था। माना जाता है कि एक पत्थर पर पाए गए अंक 1 से 100 तक गुरु सांदीपनि द्वारा उकेरे गए थे।पुराणों में उल्लिखित गोमती कुंड पुराने दिनों में आश्रम में पानी की आपूर्ति का स्रोत था।नंदी की एक छवि तालाब के पास शुंग काल के समय की है। वल्लभ संप्रदाय के अनुयायी इस स्थान को वल्लभाचार्य की 84 सीटों में से 73 वीं सीट के रूप में मानते हैं जहां उन्होंने पूरे भारत में अपने प्रवचन दिए।

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चिंतामण गणेश मंदिर एवं भूखी माता मंदिर Ujjain Pramukh Darshaniy Sthal-2022

Ujjain Pramukh Darshaniy Sthal-2022 मध्यप्रदेश की धार्मिक नगरी उज्जैन में भगवान गणेश का प्राचीन मंदिर स्थित है। यह मंदिर महाकालेश्वर मंदिर से 6 किलोमीटर की दूरी पर है। यह प्राचीन मंदिर चिंतामण गणेश के नाम से प्रसिद्ध है। गणेश जी के इस प्रसिद्ध मंदिर के गर्भगृह में तीन प्रतिमाएं स्थापित है। गौरीसुत गणेश की तीन प्रतिमाएं गर्भगृह में प्रवेश करते ही दिखाई देती हैं, यहां पार्वतीनंदन तीन रूपों में विराजमान हैं। पहला चिंतामण, दूसरा इच्छामन और तीसरा सिद्धिविनायक। मान्यताओं के अनुसार इस मंदिर की स्थापना स्वयं भगवान श्रीराम ने की थी। यहां दर्शन करने वाले व्यक्ति की सभी चिंताएं खत्म हो जाती है और वे चिंता मुक्त हो जाते हैं। बुधवार के दिन यहां श्रृद्धालुओं की भारी भीड़ उमड़ती है।

रामायणकाल से स्थापित है मंदिर- चिंतामण गणेश मंदिर परमारकालीन है, जो कि 9वीं से 13वीं शताब्दी का माना जाता है। इस मंदिर के शिखर पर सिंह विराजमान है। वर्तमान मंदिर का जीर्णोद्धार अहिल्याबाई होलकर के शासनकाल में हुआ। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार चिंतामण गणेश सीता द्वारा स्थापित षट् विनायकों में से एक हैं। कहते हैं कि यह मंदिर रामायण काल में राम वनवास के समय का है। जब भगवान श्रीराम अपनी पत्नी सीता और भाई लक्ष्मण के साथ वन में घूम रहे थे तभी सीता को बड़ी जोरों की प्यास लगी। राम ने लक्ष्मण से पानी लाने को कहा तो उन्होंने मना कर दिया। पहली बार लक्ष्मण द्वारा किसी काम को मना करने से राम को बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने ध्यान द्वारा समझ लिया कि यह सब यहां की दोष सहित धरती का कमाल है। तब उन्होंने सीता और लक्ष्मण के साथ यहां गणपति मंदिर की स्थापना की जिसके प्रभाव से बाद में लक्ष्मण ने यहां एक बावड़ी बनाई जिसे लक्ष्मण बावड़ी कहते हैं।

मंदिर में बनाया जाता है उल्टा स्वास्तिक- पुजारी बताते हैं कि मनोकामना पूर्ण करने के लिए श्रद्धालु यहां मन्नत का धागा बांधते हैं और उल्टा स्वस्तिक भी बनाते हैं। मन्नत के लिए दूध, दही, चावल और नारियल में से किसी एक वस्तु को चढ़ाया जाता है और जब वह इच्छा पूर्ण हो जाती है तब उसी वस्तु का यहां दान किया जाता है।

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भूखी माता मंदिर

इस मंदिर से राजा विक्रमादित्य के राजा बनने की किंवदंती जुड़ी हुई है। मान्यता है कि भूखी माता को प्रतिदिन एक युवक की बलि दी जाती थी। तब जवान लड़के को उज्जैन का राजा घोषित किया जाता था, उसके बाद भूखी माता उसे खा जाती थी। एक दुखी मां का विलाप देख नौजवान विक्रमादित्य ने उसे वचन दिया कि उसके बेटे की जगह वह नगर का राजा और भूखी माता का भोग बनेगा। राजा बनते ही विक्रमादित्य ने पूरे शहर को सुगंधित भोजन से सजाने का आदेश दिया। जगह-जगह छप्पन भोज सजा दिए गए। भूखी माता की भूख विक्रमादित्य को अपना आहार बनाने से पहले ही खत्म हो गई और उन्होंने विक्रमादित्य को प्रजापालक चक्रवर्ती सम्राट होने का आशीर्वाद दिया। तब विक्रमादित्य ने उनके सम्मान में इस मंदिर का निर्माण करवाया। यहां के पुजारी अमरसिंह पिता बंसीलाल मालवीय ने कहा कि कई माताओं में से एक नरबलि की शौकिन थी। राजा विक्रमादित्य ने इस समस्या के निदान के लिए देवी को वचन में लेकर नदी पार उनके मंदिर की स्थापना की। वचन में उन्होंने सभी देवी शक्तियों को भोजन के लिए आमंत्रित किया। कई तरह के पकवान और मिष्ठान बनाकर विक्रमादित्य ने एक भोजशाला में सजाकर रखवा दिए। तब एक तखत पर एक मेवा-मिष्ठान्न का मानव पुतला बनाकर लेटा दिया और खुद तखत के ‍नीचे छिप गए।

रात्रि में सभी देवियां उनके उस भोजन से खुश और तृप्त हो गईं। देवियां आपस में बातें करने लगीं कि यह राजा ऐसे ही हमें आमंत्रित करता रहा तो अच्छा रहेगा। जब सभी जाने लगीं तब एक देवी को जिज्ञासा हुई कि तखत पर कौन-सी चीज है जिसे छिपाकर रखा गया है। अन्य देवियों ने कहा कि जाने दो, कुछ भी हो हमें क्या, हम तो तृप्त हो गए हैं चलते हैं, लेकिन वह देवी नहीं मानी और तखत पर रखे उस पुतले को तोड़कर खा लिया। खुश होकर देवी ने कहा- किसने रखा यह इतना स्वादिष्ट भोजन। तब विक्रमादित्य तखत के नीचे से निकलकर सामने आ गए और उन्होंने कहा कि मैंने रखा है। देवी ने कहा कि- मांग लो वचन, क्या मांगना है। विक्रमादित्य ने कहा कि- माता से मैं यह वचन मांगता हूं कि कृपा करके आप नदी के उस पार ही विराजमान रहें, कभी नगर में न आएं। देवी ने राजा की चतुराई पर अचरज जाहिर किया और कहा कि ठीक है, तुम्हारे वचन का पालन होगा। सभी अन्य देवियों ने इस घटना पर उक्त देवी का नाम भूखी माता रख दिया।

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